*और में ये तक नही कह पाया*
लफ़्ज़ों से कहना था लेकिन ठिठक रही थी ज़ुबान, आप आते रहे, मैं देखता रहा,
और में कुछ भी नही कह पाया।
वो ज़माना मेरा हो गया आप लोगों के साथ, सोचा कि कहता हूं, फिर डूब गया यादों में,
और में ये तक नही कह पाया।
किताबों के बेहिसाब पन्ने ज़र्रों में बसते गए, हर पन्ने में वो पल दिखते हैं आज भी,
और में ये तक नही कह पाया।
सोचा था कि चंद दिनों मे बता दूं, आपसे क्या क्या पाया, आपने कहाँ पहुंचाया,
और में ये तक नही कह पाया।
दोस्त बड़े दिलदार निकले जो आये मेरी इस गुजारिश पर, कुछ रूठे थे, कुछ मान गए,
और में ये तक नही कह पाया।
आगे बढ़ा फिर पीछे हटा कहने को, आपने मुझे मेरा सबकुछ दे दिया,
और में ये तक नही कह पाया।
सोचा था आप बदल गए होंगे, पर आज भी सब उतने ही अल्हड़ निकले, उतने ही अक्खड़ निकले,
और में ये तक नही कह पाया।
दिल मे थी ख्वाहिशें क्या क्या करने की इस मौके पर, पर वक्त एकदम से थम गया,
और में ये तक नही कह पाया।
मन मे थी कसक की जो तब नही कहा वो अब कह दूं, आगे बढ़ा, फिर रुक गया,
और में ये तक नही कह पाया।
जश्न में दोस्तों दिल और जान लगाना चाहता था, लेकिन सोचा कि फिर से बुलाऊंगा, तब और बेहतर करूँगा,
और में ये तक नही कह पाया।
फिर से मिले तो हम, हंसते गाते ये दिन पल में निकल गए, फिर कब मिलेंगे तय करना था,
और में ये तक नही कह पाया
"फिर मिलेंगे" कह कर सब जाते रहे, रुक जाओ, मत जाओ, कहना था सबको,
और में ये तक नही कह पाया।